Thursday, July 12, 2007

गजानन माधव मुक्तिबोध : चांद का मुँह टेढा है ???


बहुत ही दुःख होता है अब मुक्तिबोध को पढ़ कर जब कि हम मिल्तों (Milton) कि कवितायेँ पढ़ कर बडे हुए । दुःख होता है कि किसी ने पहले क्यों नही बताया कि हिंदी साहित्य मे खालिस aesthetics पर ही नही विचारा गया है और किरातार्जुनियम और कुमारसंभव (जो कि स्पष्ट रुप से संस्कृत साहित्य है ,लेकिन हम प्रारम्भ वहीँ से करते हैं ;अतः मैं हिंदी साहित्य को एक तरह से भारतीय साहित्य यहाँ कहना चाहूँगा) से लेकर बाद तक के काव्य मे केवल एक vague भावना के ,जिसका कोई सीधा समाज से लेना देना नही है के आस पास ही नही घूमा गया है । और दूसरी तरफ जैसा कि जनवादी कविताओं मे पाया जता है , ऐसा भी नही है कि कवितायेँ केवल सामाजिक समस्याओं की एक प्रतीकात्मक सूची बन कर रह गईँ हैं । लेकिन यह दृष्टि कोंड केवल मुक्तिबोध को पढने के बाद ही आसानी से बन पा ता है ।

मुक्तिबोध मे मिल्तों की कविताओं जैसा घनत्व है , पौंड और एल्लिओत जैसी प्रथम दृष्टया जटिलता है और बहुत ही अनूठे ढंग से, हालांकि कि हिंदी साहित्य के विद्वान् संभवतः अनुमोदन ना करें , संफ्रंसिस्को पुनर्जागरण अथवा Beat Movement के कवियों (Allen Ginsberg ,Kenneth Rexroth , Gary Snyder इत्यादि ) जैसी अभिव्यक्तात्मक स्वतंत्रता है । कहीँ कहीँ हम उनकी कविताओं मे फ्रेंच कवियों जैसे कि Arthur Rimbaud और Paul Verlaine जैसी प्रतीकात्मकता कि भी झलक पाते हैं । हालांकि इस तरह से उनका मुल्यांकन करना एकदम उचित नही है , किन्तु जैसा कि स्पष्ट है कि यह लेख मुख्यतः उनके लिए है जो मुक्तिबोध से परिचित नही हैं और जो यूरोपियन तथा अमेरिकन साहित्य के ज्यादा नजदीक रहे हैं , यह एक सहज रास्ता दीख पड़ता है उन्हें मुक्तिबोध कि कविताओं से परिचित कराने मे ।
मेरी अपनी समझ मे उनकी प्रतिनिधि कविताओं का संकलन पर्याप्त है उनमे रूचि पैदा करने मे । पहली कविता ही
झंक्झोर देने वाली है ' पूंजीवादी समाज के प्रति '। और अन्तिम कविता उनकी मानसिक स्थिति को निस्कर्षित करती है ....
"बेचैन चील उस जैसा मैं पर्यटन शील ........"। सही ही कहा है अशोक वाजपेयी जीं ने मुक्तिबोध के बारे मे कि वो एक कठिन समय के कठिन कवि हैं । लगभग सभी कवितायेँ मरणोपरांत प्रकाशित हुईं । कठिन आर्थिक पारिवारिक जीवन से जूझते रहने के बावजूद साहित्य से जुडे रहना , वह भी पचास के दशक मे , कविता मे प्रयोग करना यह सब उनके मौलिक वादी होने के साथ साथ साहित्य से उनकी प्रतिबद्धता का सूचक है । लंबी कविता का चलन चला कर वो avant-garde कविओं मे स्थान रखते हैं । मुख्यतः एक कवि होने के बावजूद गद्य साहित्य मे प्रयोग किये ....ब्रह्म राक्षस का शिष्य ......एक ऐसी कहानी है जो हिंदी मे फंतासी और अति यथार्थ वादी (fantasy और surrealism ) भावनाओं का अनूठा संगम मालूम पड़ती है ।
और भी बहुत कुछ है कहने को पर स्थान और शब्द पर्याप्त नही हैं ।